न ग़ैर ही मुझे समझो न दोस्त ही समझो
मिरे लिए ये बहुत है कि आदमी समझो
महशर इनायती
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क़सम जब उस ने खाई हम ने ए'तिबार कर लिया
ज़रा सी देर ज़िंदगी को ख़ुश-गवार कर लिया
महशर इनायती
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सुनते थे 'महशर' कभी पत्थर भी हो जाता है मोम
आज वो आए तो पलकों को भिगोना पड़ गया
महशर इनायती
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उन का ग़म उन का तसव्वुर उन की याद
कट रही है ज़िंदगी आराम से
महशर इनायती