मुझ को ये मोहतात इख़्लास-ए-नज़र अच्छा लगा
उस की दुज़्दीदा निगाहों का सफ़र अच्छा लगा
जावेद नसीमी
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पलकों पे ले के बोझ कहाँ तक फिरा करूँ
ए ख़्वाब-ए-राएगाँ मैं बता तेरा क्या करूँ
जावेद नसीमी
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साथ चावल के ये कंकर भी निगल जाता है
भूक में आदमी पत्थर भी निगल जाता है
जावेद नसीमी
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समझने से रहा क़ासिर कि दानिस्ता नहीं समझा
न जाने क्यूँ हमारी प्यास को दरिया नहीं समझा
जावेद नसीमी
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ज़रा क़रीब से देखूँ तो कोई राज़ खुले
यहाँ तो हर कोई लगता है आदमी जैसा
जावेद नसीमी
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ज़िंदा रहने के लिए अस्बाब दे
मेरी आँखों को तू अपने ख़्वाब दे
जावेद नसीमी
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