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ग़ुलाम मौला क़लक़ शायरी | शाही शायरी

ग़ुलाम मौला क़लक़ शेर

49 शेर

उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र
सूझी हमें भी हिज्र में आख़िर को दूर की

ग़ुलाम मौला क़लक़




वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
फैला गया चराँद शराब-ए-तहूर की

ग़ुलाम मौला क़लक़




वाइ'ज़ ये मय-कदा है न मस्जिद कि इस जगह
ज़िक्र-ए-हलाल पर भी है फ़तवा हराम का

ग़ुलाम मौला क़लक़




वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे
ऐसा कोई सदमा मिरी जाँ पर नहीं होता

ग़ुलाम मौला क़लक़




वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा
ये क़िस्सा है हमारा जो ना-तमाम निकला

ग़ुलाम मौला क़लक़




ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में आ गए हम भी
वले शोर-ए-सलासिल में है इक खटका रिहाई का

ग़ुलाम मौला क़लक़




ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
सभी मजबूर हैं दिल से मोहब्बत आ ही जाती है

ग़ुलाम मौला क़लक़




हर संग में काबे के निहाँ इश्वा-ए-बुत है
क्या बानी-ए-इस्लाम भी ग़ारत-गर-ए-दीं था

ग़ुलाम मौला क़लक़




अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम
किस तरह ख़ाक-ए-रहगुज़र बैठे

ग़ुलाम मौला क़लक़