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ग़ुलाम मौला क़लक़ शायरी | शाही शायरी

ग़ुलाम मौला क़लक़ शेर

49 शेर

है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
कुछ नहीं है तो दिल-लगी ही सही

ग़ुलाम मौला क़लक़




आसमाँ अहल-ए-ज़मीं से क्या कुदूरत-नाक था
मुद्दई भी ख़ाक थी और मुद्दआ' भी ख़ाक था

ग़ुलाम मौला क़लक़




फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
तुम मुझ को छोड़ दो तो मैं तुम को रिहा करूँ

ग़ुलाम मौला क़लक़




दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
दर्द उठे आबला अगर बैठे

ग़ुलाम मौला क़लक़




दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
जुदा जो जादा-ए-मक़सूद से सफ़र होता

ग़ुलाम मौला क़लक़




बुत-ख़ाने की उल्फ़त है न काबे की मोहब्बत
जूयाई-ए-नैरंग है जब तक कि नज़र है

ग़ुलाम मौला क़लक़




बोसा देने की चीज़ है आख़िर
न सही हर घड़ी कभी ही सही

ग़ुलाम मौला क़लक़




अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया
कौन सी हसरत का यारब ये चराग़-ए-ख़ाना था

ग़ुलाम मौला क़लक़




अंदाज़ा आदमी का कहाँ गर न हो शराब
पैमाना ज़िंदगी का नहीं गर सुबू न हो

ग़ुलाम मौला क़लक़