इज़ाला हो गया ताख़ीर से निकलने का
गुज़र गई है सफ़र में मिरे क़याम की शाम
अज़हर फ़राग़
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ख़तों को खोलती दीमक का शुक्रिया वर्ना
तड़प रही थी लिफ़ाफ़ों में बे-ज़बानी पड़ी
अज़हर फ़राग़
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ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
जब तक शजर को छाँव के क़ाबिल नहीं किया
अज़हर फ़राग़
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