किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
उसी हबीब साए से बनी हमारी दास्ताँ
अली अकबर नातिक़
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कोई न रस्ता नाप सका है, रेत पे चलने वालों का
अगले क़दम पर मिट जाएगा पहला नक़्श हमारा भी
अली अकबर नातिक़
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मुख़्तसर बात थी, फैली क्यूँ सबा की मानिंद
दर्द-मंदों का फ़साना था, उछाला किस ने
अली अकबर नातिक़
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सर्द रातों की हवा में उड़ते पत्तों के मसील
कौन तेरे शब-नवर्दों को सँभाले शहर में
अली अकबर नातिक़
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वो शख़्स अमर है, जो पीवेगा दो चाँदों के नूर
उस की आँखें सदा गुलाबी जो देखे इक लाल
अली अकबर नातिक़
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ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला
धुँद में उलझा रहा नींद में चलने वाला
अली अकबर नातिक़
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