इक ख़ौफ़-ए-बे-पनाह है आँखों के आर-पार
तारीकियों में डूबता लम्हा है सामने
सुलेमान ख़ुमार
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मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोइयों से
समझ लेता हूँ तेरी अन-कही भी
सुलेमान ख़ुमार
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उम्र भर चल के भी पाई नहीं मंज़िल हम ने
कुछ समझ में नहीं आता ये सफ़र कैसा है
सुलेमान ख़ुमार
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