ब-वक़्त-ए-शाम समुंदर में गिर गया सूरज
तमाम दिन की थकन से निढाल ऐसा था
अज़हर नैयर
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चाहा है जिस का साया शजर वो बबूल है
क़िस्मत में मेरे आज भी सड़कों की धूल है
अज़हर नैयर
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दिल ख़ाक हुआ प्यार की इस आग में जल कर
और झाँक के उस ने कभी अंदर नहीं देखा
अज़हर नैयर
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थी उस की बंद मुट्ठी में चिट्ठी दबी हुई
जो शख़्स था ट्रेन के नीचे कटा हुआ
अज़हर नैयर
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तुम बहर-ए-मोहब्बत के किनारे पे खड़े थे
तुम ने मिरी आँखों में समुंदर नहीं देखा
अज़हर नैयर
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