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ज़ियादा पास मत आना | शाही शायरी
ziyaada pas mat aana

नज़्म

ज़ियादा पास मत आना

रहमान फ़ारिस

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ज़ियादा पास मत आना
मैं वो तह-ख़ाना हूँ जिस में

शिकस्ता ख़्वाहिशों के अन-गिनत आसेब बस्ते हैं
जो आधी शब तो रोते हैं फिर आधी रात हँसते हैं

मिरी तारीकियों में
गुम-शुदा सदियों के गर्द-आलूद ना-आसूदा ख़्वाबों के

कई इफ़रीत बस्ते हैं
मिरी ख़ुशियों पे रोते हैं मिरे अश्कों पे हँसते हैं

मिरे वीरान दिल में रेंगती हैं मकड़ियाँ ग़म की
तमन्नाओं के काले नाग शब-भर सरसराते हैं

गुनाहों के जने बिच्छू
दमों पर अपने अपने डंक लादे

अपने अपने ज़हर के शो'लों में जलते हैं
ये बिच्छू दुख निगलते और पछतावे उगलते हैं

ज़ियादा पास मत आना
मैं वो तह-ख़ाना हूँ जिस में

कोई रौज़न कोई खिड़की नहीं बाक़ी
फ़क़त क़ब्रें ही क़ब्रें हैं

कहीं ऐसा न हो तुम भी इन्ही क़ब्रों में खो जाओ
इन्ही में दफ़न हो जाओ

गुलाबी हो कहीं ऐसा न हो तुम ज़र्द हो जाओ
मोहब्बत की हरारत खो के बिल्कुल सर्द हो जाओ

सरापा दर्द हो जाओ
सो मेरे सादा-ओ-मासूम मुझ को रास मत आना

ज़ियादा पास मत आना
ज़ियादा पास मत आना