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ज़िंदगी | शाही शायरी
zindagi

नज़्म

ज़िंदगी

वहीदुद्दीन सलीम

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ज़र्रे ज़र्रे में दवाँ रूह-ओ-रुआँ पाता हूँ मैं
ज़िंदगी को एक बहर-ए-बे-कराँ पाता हूँ मैं

ग़ुंचा ग़ुंचा नुत्क़ पर आमादा आता है नज़र
पत्ते पत्ते की ज़बाँ को नग़्मा-ख़्वाँ पाता हूँ मैं

ज़िंदा हस्ती की ख़बर देती है रफ़्तार-ए-नफ़स
बू-ए-गुल को ज़िंदगी का तर्जुमाँ पाता हूँ मैं

बर्क़ की जुम्बिश हो या बाद-ए-सबा का हो ख़िराम
ज़िंदगी का हर तमव्वुज में निशाँ पाता हूँ मैं

उस से आगे भी हैं रूहें उड़ती फिरती बे-शुमार
ताएर-ए-सिदरा का जिस जा आशियाँ पाता हूँ मैं

हो चुकी है हुक्मराँ जिस नख़्ल पर बाद-ए-ख़िज़ाँ
उस की रग रग में बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ पाता हूँ मैं

चार-सू राह-ए-सफ़र पर दौड़ती है जब नज़र
ज़िंदगी को कारवाँ-दर-कारवाँ पाता हूँ मैं

जाने वालों की तबाही के निशानों में निहाँ
आने वाली हस्तियों की बस्तियाँ पाता हूँ मैं

अल-ग़रज़ समझे हो जिन को मौत की बर्बादियाँ
ज़िंदगी के इंक़लाब अन में निहाँ पाता हूँ मैं