समाअ'त-ए-मुंजमिद के मालिक
समाअ'तों पर जुमूद हो तो
दिनों को हफ़्तों में ढालने का नहीं कोई मश्ग़ला
ब-जुज़ ये कि वादियों में सदा की दूरी पे बजने वाले
सुहाने सपनों के ढोल सुनना
रफ़ू-गर-ए-दामन-ए-तमन्ना
हर एक धड़कन पे दिल में इक टीस सी न उठ्ठे
हर एक हरकत पे आबलों में मरी हुई साँस जी न उठ्ठे
किसी की आवाज़-ए-पा से दम तोड़ती हुई ज़िंदगी न उठ्ठे
कोई पुकारे कोई न उठ्ठे
तो झील-आँखों कँवल से चेहरों को भूलने का
कोई तरीक़ा नहीं
ब-जुज़ ये कि साहिलों पर पुराने सीपों के ख़ोल चुनना
रफ़ू-गर-ए-दामन-ए-तमन्ना
अगर कभी आबलों की साँसें बहाल हों तो
लहू से रुतों के जाल बुनना
समाअ'त-ए-मुंजमिद के मालिक
समाअ'तों से जो बर्फ़ सर के
नदी के गीतों के बोल सुनना
नज़्म
ज़िंदगी के गीतों के बोल सुनना
तनवीर मोनिस