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ज़िंदा दर-गोर | शाही शायरी
zinda dar-gor

नज़्म

ज़िंदा दर-गोर

मोहम्मद हनीफ़ रामे

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मैं ख़ुदा की क़ब्र हूँ
ख़ुदा मेरे अंदर दफ़्न है

भई, मैं ने अपने हाथों से दफ़्न किया है उसे!
फ़र्क़ ये है कि दफ़्न होने के बावजूद ज़िंदा है वो

ज़िंदा दर-गोर
ऊपर से मलबा हटाने की देर है

अंदर से ख़ुदा निकल आएगा
हाँ हाँ मेरे अंदर से निकल आएगा

ये जो मनों मिट्टी डाल रक्खी है मैं ने उस पर
अक़ीदों और नज़रयों की

ख़यालों और वाहिमों की
ख़्वाहिशों और लग़वियात की

अगर किसी रोज़ किसी तूफ़ान बारिश में बह गई
तो देखना इसी मेरे टूटे-फूटे बदन की उजाड़ क़ब्र से

जीता-जागता तर-ओ-ताज़ा ख़ुदा कैसे नुमूदार हो जाएगा
जैसे सर-ब-फ़लक पहाड़ियों की यख़-बस्ता वादियों में

बर्फ़ पिघलने के बाद
देखते ही देखते

ता-हद्द-ए-नज़र
फूल खिल उठते हैं