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ज़रा सी बात | शाही शायरी
zara si baat

नज़्म

ज़रा सी बात

अमजद इस्लाम अमजद

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ज़िंदगी के मैले में ख़्वाहिशों के रेले में
तुम से क्या कहें जानाँ इस क़दर झमेले में

वक़्त की रवानी है बख़्त की गिरानी है
सख़्त बे-ज़मीनी है सख़्त ला-मकानी है

हिज्र के समुंदर में
तख़्त और तख़्ते की एक ही कहानी है

तुम को जो सुनानी है
बात गो ज़रा सी है

बात उम्र-भर की है
उम्र-भर की बातें कब दो-घड़ी में होती हैं

दर्द के समुंदर में
अन-गिनत जज़ीरे हैं बे-शुमार मोती हैं

आँख के दरीचे में तुम ने जो सजाया था
बात उस दिए की है

बात उस गिले की है
जो लहू की ख़ल्वत में चोर बन के आता है

लफ़्ज़ की फ़सीलों पर टूट टूट जाता है
ज़िंदगी से लम्बी है बात रतजगे की है

रास्ते में कैसे हो
बात तख़लिए की है

तख़लिए की बातों में गुफ़्तुगू इज़ाफ़ी है
प्यार करने वालों को इक निगाह काफ़ी है

हो सके तो सुन जाओ एक रोज़ अकेले में
तुम से क्या कहें जानाँ इस क़दर झमेले हैं