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ज़मीं का क़र्ज़ | शाही शायरी
zamin ka qarz

नज़्म

ज़मीं का क़र्ज़

शाज़ तमकनत

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ज़मीं का क़र्ज़ है हम सब के दोश-ओ-गर्दन पर
अजीब क़र्ज़ है ये क़र्ज़-बे-तलब की तरह

हमीं हैं सब्ज़ा-ए-ख़ुद-रौ हमीं हैं नक़्श-ए-क़दम
कि ज़िंदगी है यहाँ मौत के सबब की तरह

हर एक चीज़ नुमायाँ हर एक शय पिन्हाँ
कि नीम रोज़ का मंज़र है नीम शब की तरह

तमाशा-गाह-ए-जहाँ इबरत-ए-नज़ारा है
ज़ियाँ-ब-दस्त रिफ़ाक़त के कारोबार मिरे

उतरती जाती है बाम-ओ-दर-ए-हयात से धूप
बिछड़ते जाते हैं एक एक कर के यार मिरे

मैं दफ़्न होता चला हूँ हर एक दोस्त के साथ
कि शहर शहर हैं बिखरे हुए मज़ार मिरे