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ये ख़्वाबों के साए | शाही शायरी
ye KHwabon ke sae

नज़्म

ये ख़्वाबों के साए

ज़ाहिदा ज़ैदी

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ये ख़्वाबों के साए
मिरी नींद की शांत वादी में

किस तरह आए
किसी और दुनिया के मौहूम पैकर

किसी और जंगल की शाख़ों के साए
पुर-असरार जज़्बों की बारिश में भीगे नहाए

गुरेज़ाँ कई साअ'तों को उठाए
मिरे पास आए

मगर मैं बढ़ी जब भी
इन धुँदले ख़ाकों को मुट्ठी में भरने

वो ग़ाएब हुए पेच खाते हुए
इक घनी धुँद में

हाथ मेरे न आए
मगर जब कभी हाथ आए

तो उन बे-सदा पैकरों ने
निहाँ ख़ाना-ए-आरज़ू के

कई राज़ मुझ को बताए
कई दाग़ मुझ को दिखाए

ये ख़्वाबों की बस्ती
कि जिस की पुर-असरार राहों में गुम

रात भर मेरी हस्ती
कोई उस की गहराइयों को भला कैसे पाए

कोई इस के सब राज़ कैसे बताए