ये ख़्वाब सारे
अभी जो आँखों में सो रहे हैं
ये जाग उट्ठे तो क्या करोगे
तो क्या करोगे जो ख़्वाब सारे
तुम्हारी आँखों से बाहर आ कर
तख़्ईल की बे-कराँ फ़ज़ा में
किसी सुनहरे हसीन लम्हे को क़ैद कर लें
किसी की ज़ुल्फ़ों में फूल टाँके
किस के होंटों पे गुनगुनाएँ
किसी के शानों पे हाथ रख दें
किसी के पहलू में बैठ जाएँ
तो क्या करोगे
तो क्या करोगे जो ख़्वाब सारे
पलट के माज़ी में लौट जाएँ
हर एक मंज़र हर एक पैकर
हर एक कूचा हर इक डगर पर
जुनूँ-ब-दामाँ तुम्हें नचाएँ
तुम्हारी वहशत को आज़माएँ
किसी खंडर की शिकस्ता चौखट पे बैठ जाएँ
सियाह ताक़ों पे मोमी शमएँ
तुम्हारी यादों में झिलमिलाएँ
कोई हयूला कोई सरापा
तुम्हें पुकारे
तुम्हारी आँखों पे हाथ रख दे
गुलाब-डाली का हार कोई
तुम्हारे तलवों में गुदगुदाए
लहरया आँचल का कोई टुकड़ा
हवा में उड़ता हुआ सा आए
तुम्हारे अश्कों से भीग जाए
तो क्या करोगे
तो क्या करोगे जो ख़्वाब सारे
तुम्हारी आँखों से अश्क बन कर
तुम्हारे दामन पे फैल जाएँ
लहू रुलाएँ
तो क्या करोगे जो ख़्वाब सारे
पलट के माज़ी में लौट जाएँ!
नज़्म
ये ख़्वाब सारे
ज़िया फ़ारूक़ी