अपने आप से लड़ते लड़ते एक ज़माना बीत गया
अब मैं अपने जिस्म के बिखरे टुकड़ों के अम्बार पे बैठा
सोच रहा हूँ
मेरा इन से क्या रिश्ता है
इन का आपस में क्या रिश्ता है
कौन हूँ मैं
और किस तलवार से मैं ने अपने जिस्म के टुकड़े काटे हैं
अब मैं क्या हूँ
और अब मुझ को क्या करना है
मैं ने क्या तामीर किया था
छोटी छोटी यादों की ज़ंजीर से
मैं ने अपने अंग अंग को बाँध लिया था
अपने गिर्द पुराने और नए लफ़्ज़ों की दीवारें चुन ली थीं
अब मेरा इन दीवारों से
इन ज़ंजीरों से
कोई रिश्ता बाक़ी है तो इतना है
जैसे अपनी रिहाई का मुझ को यक़ीं न हो
मैं दीवाना हूँ
अब मुझ से इतना फ़ैज़ करो यारो
मैं ने जितने शेर लिखे हैं मेरे सर पे दे मारो
नज़्म
यादों की ज़ंजीरें
शहज़ाद अहमद