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यादें | शाही शायरी
yaaden

नज़्म

यादें

अख़्तर-उल-ईमान

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लो वो चाह-ए-शब से निकला पिछले-पहर पीला महताब
ज़ेहन ने खोली रुकते रुकते माज़ी की पारीना किताब

यादों के बे-म'अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब
सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब

गुज़री बात सदी या पल हो गुज़री बात है नक़्श-बर-आब
ये रूदाद है अपने सफ़र की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
शहर-ए-तमन्ना के मरकज़ में लगा हुआ है मेला सा

खेल-खिलौनों का हर-सू है इक रंगीं गुलज़ार खिला
वो इक बालक जिस को घर से इक दिरहम भी नहीं मिला

मेले की सज-धज में खो कर बाप की उँगली छोड़ गया
होश आया तो ख़ुद को तन्हा पा के बहुत हैरान हुआ

भीड़ में राह मिली नहीं घर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में

वो बालक है आज भी हैराँ मेला जूँ-का-तूँ है लगा
हैराँ है बाज़ार में चुप-चुप क्या क्या बिकता है सौदा

कहीं शराफ़त कहीं नजाबत कहीं मोहब्बत कहीं वफ़ा
आल-औलाद कहीं बिकती है कहीं बुज़ुर्ग और कहीं ख़ुदा

हम ने इस अहमक़ को आख़िर इसी तज़ब्ज़ुब में छोड़ा
और निकाली राह मफ़र की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
होंट तबस्सुम के आदी हैं वर्ना रूह में ज़हर-आगीं

घुपे हुए हैं इतने नश्तर जिन की कोई तादाद नहीं
कितनी बार हुई है हम पर तंग ये फैली हुई ज़मीं

जिस पर नाज़ है हम को इतना झुकी है अक्सर वही जबीं
कभी कोई सिफ़्ला है आक़ा कभी कोई अब्ला फ़र्ज़ीं

बेची लाज भी अपने हुनर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की आबाद ख़राबे में

काले कोस ग़म-ए-उल्फ़त के और मैं नान-ए-शबीना-जू
कभी चमन-ज़ारों में उलझा और कभी गंदुम की बू

नाफ़ा-ए-मुश्क-ए-ततारी बन कर लिए फिरी मुझ को हर-सू
यही हयात-ए-साइक़ा-फ़ितरत बनी तअत्तुल कभी नुमू

कभी किया रम इश्क़ से ऐसे जैसे कोई वहशी आहू
और कभी मर-मर के सहर की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
कभी ग़नीम-ए-जौर-ओ-सितम के हाथों खाई ऐसी मात

अर्ज़-ए-अलम में ख़्वार हुए हम बिगड़े रहे बरसों हालात
और कभी जब दिन निकला तो बीत गए जुग हुई न रात

हर-सू मह-वश सादा क़ातिल लुत्फ़-ओ-इनायत की सौग़ात
शबनम ऐसी ठंडी निगाहें फूलों की महकार सी बात

जूँ-तूँ ये मंज़िल भी सर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में

राह-नवर्द-ए-शौक़ को रह में कैसे कैसे यार मिले
अब्र-ए-बहाराँ अक्स-ए-निगाराँ ख़ाल-ए-रुख़-ए-दिल-दार मिले

कुछ बिल्कुल मिट्टी के माधो कुछ ख़ंजर की धार मिले
कुछ मंजधार में कुछ साहिल पर कुछ दरिया के पार मिले

हम सब से हर हाल में लेकिन यूँही हाथ पसार मिले
सिर्फ़ उन की ख़ूबी पे नज़र की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
सारी है बे-रब्त कहानी धुँदले धुँदले हैं औराक़

कहाँ हैं वो सब जिन से जब थी पल-भर की दूरी भी शाक़
कहीं कोई नासूर नहीं गो हाएल है बरसों का फ़िराक़

किर्म-ए-फ़रामोशी ने देखो चाट लिए कितने मीसाक़
वो भी हम को रो बैठे हैं चलो हुआ क़र्ज़ा बे-बाक़

खुली तो आख़िर बात असर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में

ख़्वाब थे इक दिन औज-ए-ज़मीं से काहकशाँ को छू लेंगे
खेलेंगे गुल-रंग शफ़क़ से क़ौस-ए-क़ुज़ह में झूलेंगे

बाद-ए-बहारी बन के चलेंगे सरसों बन कर फूलेंगे
ख़ुशियों के रंगीं झुरमुट में रंज-ओ-मेहन सब भूलेंगे

दाग़-ए-गुल-ओ-ग़ुंचा के बदले महकी हुई ख़ुश्बू लेंगे
मिली ख़लिश पर ज़ख़्म-ए-जिगर की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
ख़्वार हुए दमड़ी के पीछे और कभी झोली-भर माल

ऐसे छोड़ के उट्ठे जैसे छुआ तो कर देगा कंगाल
स्याने बन कर बात बिगाड़ी ठीक पड़ी सादा सी चाल

छाना दश्त-ए-मोहब्बत कितना आबला-पा मजनूँ की मिसाल
कभी सिकंदर कभी क़लंदर कभी बगूला कभी ख़याल

स्वाँग रचाए और गुज़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में

ज़ीस्त ख़ुदा जाने है क्या शय भूक तजस्सुस अश्क फ़रार
फूल से बच्चे ज़ोहरा-जबीनें मर्द मुजस्सम बाग़-ओ-बहार

किया है रूह-ए-अर्ज़ को आख़िर और ये ज़हरीले अफ़्कार
किस मिट्टी से उगते हैं सब जीना क्यूँ है इक बेगार

इन बातों से क़त-ए-नज़र की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की आबाद ख़राबे में

दूर कहीं वो कोयल कूकी रात के सन्नाटे में दूर
कच्ची ज़मीं पर बिखरा होगा महका महका आम का बोर

बार-ए-मशक़्क़त कम करने को खलियानों में काम से चूर
कम-सिन लड़के गाते होंगे लो देखो वो सुब्ह का नूर

चाह-ए-शब से फूट के निकला मैं मग़्मूम कभी मसरूर
सोच रहा हूँ इधर उधर की इस आबाद ख़राबे में

देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
नींद से अब भी दूर हैं आँखें गो कि रहीं शब-भर बे-ख़्वाब

यादों के बे-म'अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब
सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब

गुज़री बात सदी या पल हो गुज़री बात है नक़्श-बर-आब
मुस्तक़बिल की सोच, उठा ये माज़ी की पारीना किताब

मंज़िल है ये होश-ओ-ख़बर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में