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याद है | शाही शायरी
yaad hai

नज़्म

याद है

मख़दूम मुहिउद्दीन

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खेलता था जब लड़कपन से तिरा रंगीं शबाब
हट रही थी माह-ए-आलम-ताब के रुख़ से नक़्क़ाब

ज़िंदगी थी हुस्न-ए-नौ आग़ाज़ का रंगीन ख़्वाब
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है

जब कि साज़-ए-ज़िंदगी नग़्मात से मामूर था
ज़र्रा ज़र्रा मेरे दिल की ख़ाक का जब तूर था

मैं अकेला ही नहीं सारा जहाँ मसरूर था
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है

खेलती थी नौजवानी जब कि बाँहों में तिरी
ज़िंदगी की बारिशें थीं जल्वा-गाहों में तिरी

रक़्स करती थीं तमन्नाएँ निगाहों में तिरी
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है

हर अदा-ए-हुस्न पर होता था दिल जब बे-क़रार
जब रहा करता मुलाक़ातों का बाहम इंतिज़ार

जब तबीअत तुझ से मिलना चाहती थी बार बार
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है

रात भर सोने न देती थी मसर्रत ईद की
जबकि रहती थी दिलों में बे-क़रारी दीद की

माहताब-ए-ईद बिन जाती किरन ख़ुर्शीद की
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है

रात आती थी सुनाने सोज़ का पैग़ाम जब
मश्क़-ए-तहरीर-ए-जुनूँ बनता था तेरा नाम जब

था न कुछ पेश-ए-नज़र इस इश्क़ का अंजाम जब
याद है वो नौजवानी का ज़माना याद है