वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा
वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा
किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार
किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार
गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए
और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए
रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं
कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं
वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी
जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी
मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं
दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं
वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं
नज़्म
वो
जौन एलिया