EN اردو
विसाल | शाही शायरी
visal

नज़्म

विसाल

मुस्तफ़ा ज़ैदी

;

वो नहीं थी तो दिल इक शहर-ए-वफ़ा था जिस में
उस के होंटों के तसव्वुर से तपिश आती थी

उस के इंकार पे भी फूल खिले रहते थे
उस के अन्फ़ास से भी शम्अ' जली जाती थी

दिन इस उम्मीद पे कटता था कि दिन ढलते ही
उस ने कुछ देर को मिल लेने की मोहलत दी है

उँगलियाँ बर्क़-ज़दा रहती थीं जैसे उस ने
अपने रुख़्सारों को छूने की इजाज़त दी है

उस से इक लम्हा अलग रह के जुनूँ होता था
जी में थी उस को न पाएँगे तो मर जाएँगे

वो नहीं है तो ये बे-नूर ज़माना क्या है
तीरगी में किसे ढूँडेंगे किधर जाएँगे

फिर हुआ ये कि उसी आग की ऐसी रौ में
हम तो जलते थे मगर उस का नशेमन भी जला

बिजलियाँ जिस की कनीज़ों में रहा करती थीं
देखने वालों ने देखा कि वो ख़िर्मन भी जला

इक ज़ुलैख़ा-ए-ख़ुद-आगाह का दामन भी जला