ढलते ढलते
एक रुपहले मंज़र ने कुछ सोचा पल्टा
पगडंडी सुनसान पड़ी थी
मटियाली और सर्द हवाएँ
हाथ झुलाती शाख़ें
रूखे सूखे पत्ते
तन्हा पेड़ पे बैठे बैठे
चटख़ रहे थे
टूट रहे थे
ख़ाक उड़ाती पगडंडी पर
शाम समय का धुँदला बादल
झुकने लगा था
ढलते ढलते
एक रुपहले मंज़र की उन भेद भरी
आँखों में कोई
जुगनू चमका तारा टूटा वहम नहीं है
आज उन खोई खोई
बोझल आँखों में
कोई जुगनू चमका
तारा टूटा
लहज़ा भर को
वहम नहीं है
नज़्म
वहम नहीं है
गुलनाज़ कौसर