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वापसी | शाही शायरी
wapsi

नज़्म

वापसी

आशुफ़्ता चंगेज़ी

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अज़िय्यत और इस सुकूँ
दोनों को ही दिल खोल के मैं ने लुटाया है

हज़ारों बार ऐसा भी हुआ है
दोस्तों की रहनुमाई में

फिरा हूँ मारा मारा
शहर की आबाद सड़कों पर

कभी वीरान गलियों में
कभी सहराओं की भी ख़ाक छानी है

मगर इस बार जाने क्या हुआ मुझ को
नुमाइश की दुकानों में

सजा कर ख़ुद को घर वापस चला आया
अभी दरवाज़ा मैं ने खटखटाया था

कि घर वालों ने कीना-तूज़ नज़रों से मुझे देखा
जब उन की आँखों में,

कोई रमक़ पहचान की मैं ने नहीं पाई
तो उल्टे पैरों वापस लौट आया हूँ

और अब ये सोचता हूँ
दोस्तों की रहनुमाई में

उन्हीं गलियों में सहराओं में जा कर
अपने क़दमों के निशाँ ढूँडूँ