ज़रा देखो
मिरी आँखों के आँगन में
कहीं कुछ ख़्वाब के मंज़र
उमीदों की हरी बेलें
तमन्नाओं की रुपहली
चमकती धूप तो फैली नहीं है
या कहीं कोई
ये बंजर सा ख़राबा है
जहाँ शुबहात के आसेब
बस्ते हैं!
नज़्म
वाहिमा
यूसुफ़ तक़ी
नज़्म
यूसुफ़ तक़ी
ज़रा देखो
मिरी आँखों के आँगन में
कहीं कुछ ख़्वाब के मंज़र
उमीदों की हरी बेलें
तमन्नाओं की रुपहली
चमकती धूप तो फैली नहीं है
या कहीं कोई
ये बंजर सा ख़राबा है
जहाँ शुबहात के आसेब
बस्ते हैं!