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वाहिमा | शाही शायरी
wahima

नज़्म

वाहिमा

यूसुफ़ तक़ी

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ज़रा देखो
मिरी आँखों के आँगन में

कहीं कुछ ख़्वाब के मंज़र
उमीदों की हरी बेलें

तमन्नाओं की रुपहली
चमकती धूप तो फैली नहीं है

या कहीं कोई
ये बंजर सा ख़राबा है

जहाँ शुबहात के आसेब
बस्ते हैं!