सिंध की वादी पे है काली घटा छाई हुई
बुर्क़ा ओढ़े इक दुल्हन बैठी है शर्माई हुई
मुंतज़िर बारिश के हैं मक्की के और शाली के खेत
तिश्नगी से ख़ोशा की सूरत है मुरझाई हुई
आज गांदेर-बल हुआ है उस का मंज़ूर-ए-नज़र
उस के सर पर क्या घटा फिरती है मंडलाई हुई
सिंध के नाले की आहों का धुआँ शायद उठा
कैसी तारीकी है सत्ह-ए-आब पर छाई हुई
क़ासिद-ए-अब्र आ रहा है ले के हाँ पैग़ाम-ए-फ़ैज़
बारगाह-ए-एज़दी में किस की शुनवाई हुइ
सू-ए-मशरिक़ है सर-ए-कोहसार पर बारिश का ज़ोर
रहमत-ए-बारी है गोया जोश पर आई हुई
ऐ 'हुमायूँ' फ़ैज़-ए-बारिश से खुले डल के कँवल
क्यूँ तिरे दिल की कली है आज मुरझाई हुई
नज़्म
वादी-ए-सिंध
शाह दीन हुमायूँ