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उर्दू | शाही शायरी
urdu

नज़्म

उर्दू

शम्स रम्ज़ी

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मैं उर्दू हूँ
मुझे ग़ैरों से क्या ख़तरा

कभी दुश्मन से होता ही नहीं ख़तरा किसी को भी
सबब तुम भी समझते हो

कि दुश्मन हर घड़ी हर पल
मुक़ाबिल ही रहा करता है दुश्मन के

मुक़ाबिल से तो मैदानों में अक्सर जंग होती है
नतीजा जंग का तुम भी समझते हो

महाज़-ए-जंग पुर-ख़तर है नहीं होता
शिकस्त-ओ-फ़त्ह होती है

तो फिर ख़तरा कहाँ से है
सुनो रूदाद-ए-ग़म

दिल थाम कर सुनना ज़रा लोगो
मुझे ख़तरा है अपनों से

मुझे ख़तरा है शाइ'र और दानिश-वर अदीबों से
मुझे नक़्क़ाद से ख़तरा मुहक़क़िक़ से मुझे ख़तरा

ये सारे लोग वो हैं जो तअ'ल्लुक़ से मिरे अब तक
ज़मीं से अर्श तक

दा'वे तो करते हैं बुलंदी के
मुहाफ़िज़ ख़ुद को उर्दू का कहा करते हैं ये अक्सर

ये दावा सब बजा लेकिन
कोई पूछे ज़रा उन से

तुम्हारे प्यारे बच्चों में कोई ऐसा भी बच्चा है
कि जिस को आप ने उर्दू से बहरा-वर किया अब तक

अगर कोई ये पूछेगा
शिकन माथे पे आएगी नफ़ी में सर झुकाएँगे

यही क़ातिल तो हैं मेरे
यही तो मेरे अपने हैं

उन्हें से मुझ को ख़तरा है
उन्हें पहचान लो लोगो

उन्हें पहचान लो लोगो