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उन्हें कह दो | शाही शायरी
unhen kah do

नज़्म

उन्हें कह दो

सादिक़

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सीढ़ियाँ चढ़ती हुई
नब्ज़ों को रोको

ऊपरी मंज़िल पे
घबराया हुआ इक हाफ़िज़ा

तश्कीक के मेहवर पे
कल शब से

मुसलसल घूमता है
इस से ना-वाक़िफ़ नहीं

हम तुम
मगर पानी की शाख़ों में

फँसे अल्फ़ाज़
धरती पर नहीं गिरते

उन्हें कह दो
कि बचपन से उलझ कर

जब भी
आँखों के किनारे

रेत का कोई घरौंदा
टूट जाता है

तो दरिया में
भयानक बाढ़ आती है

समुंदर नज़्अ' के आलम में
अक्सर चीख़ता है

सीढ़ियाँ चढ़ती हुई
नब्ज़ों से कह दो