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उलझनें | शाही शायरी
uljhanen

नज़्म

उलझनें

कैफ़ी आज़मी

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ज़बाँ को तर्जुमान-ए-ग़म बनाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
मैं बर्ग-ए-गुल से अंगारे उठाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'

समझ में किस की आए राज़ मेरे हिचकिचाने का
अँधेरे में चला करता है हर नावक ज़माने का

निगाह-ए-मस्त की अल्लाह-रे मासूम ताकीदें
मुझे है हुक्म साज़-ए-मुफ़्लिसी पर गुनगुनाने का

मैं साज़-ए-मुफ़्लिसी पर गुनगुनाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
हँसी भी मेरी नौहा है मिरा नग़्मा भी मातम है

जुनूँ भी मुझ से बरहम है ख़िरद भी मुझ से बरहम है
सुलगता शौक़ पिघलते वलवले जलती तमन्नाएँ

ज़मीं मेरी जहन्नम है फ़लक मेरा जहन्नम है
ख़याली जन्नतों में बैठ जाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'

ये तौक़-ए-बंदगी वो फूल सी गर्दन मआज़-अल्लाह
वो शहद-आलूद लब और तलख़ी-ए-शेवन मआज़-अल्लाह

कमाल-ए-हुस्न और ये इंकिसार-ए-इश्क़ अरे तौबा
वो नाज़ुक हाथ मेरा गोशा-ए-दामन मआज़-अल्लाह

झटक कर गोशा-ए-दामन छुड़ाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
नवेद-ए-सुब्ह सुनता ही नहीं रंगीन ख़्वाब उस का

घिरा जाता है ज़ुल्मत-रेज़ किरनों में शबाब उस का
मुझे फ़ुर्सत नहीं रंगीनियों में डूब जाने की

उसे देता ये धोका ए'तिबार-ए-इंतिख़ाब उस का
हक़ीक़त मस्त आँखों को दिखाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'

फ़ना में हुज़्न-दीदा ज़िंदगी ज़म होती जाती है
थकी नब्ज़ों की ख़स्ता ज़र्ब मद्धम होती जाती है

ये अरमानों का मौसम ये मिरी गिरती हुई सेह्हत
अँधेरी रात और लौ शम्अ की कम होती जाती है

शबिस्तान-ए-वफ़ा को जगमगाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
निराली जस्त करना है नए रस्ते पे चलना है

नए शोलों में तपना है नए साँचे में ढलना है
यही दो चार साँसें जो अभी मुझ को सँभाले हैं

इन्हीं दो चार साँसों में ज़माने को बदलना है
इन्हें भी सर्द गीतों में गँवाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'

परेशाँ क़ाफ़िले ने अब निशाँ मंज़िल का पाया है
धुँदलकों के उधर इक सुर्ख़ तारा झिलमिलाया है

चले हैं हाँपते इंसाँ नई दुनिया बसाने को
बहुत ऐसे हैं इन में जिन को ख़ुद मैं ने बढ़ाया है

मैं ख़ुद ही रास्ते से लौट आऊँ किस तरह 'कैफ़ी'