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उजाला | शाही शायरी
ujala

नज़्म

उजाला

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए

आँख मलते हुए उठ जाए किरन बिस्तर से
सुब्ह का वक़्त ज़रा और सुहाना हो जाए

मेरे निखरे हुए गीतों में तिरा जादू है
मैं ने मेयार-ए-तसव्वुर से बनाया है तुझे

मेरी परवीन-ए-तख़य्युल, मिरी नसरीन-ए-निगाह
मैं ने तक़्दीस के फूलों से सजाया है तुझे

दूध की तरह कुँवारी थी ज़मिस्ताँ की वो रात
जब तिरे शबनमी आरिज़ ने दहकना सीखा

नींद के साए में हर फूल ने अंगड़ाई ली
नर्म कलियों ने तिरे दम से चटकना सीखा

मेरी तख़्ईल की झंकार को साकित पा कर!
चूड़ियाँ तेरी कलाई में खनक उठती थीं

उफ़ मिरी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी तिश्ना-लबी!
कच्ची कलियाँ तिरे होंटों की महक उठती थीं

वक़्त के दस्त-ए-गिराँ-बार से मायूस न हो
किस को मालूम है क्या होना है और क्या हो जाए

मेरी हमदम, मिरे ख़्वाबों की सुनहरी ताबीर
मुस्कुरा दे कि मिरे घर में उजाला हो जाए