नवा-ए-दर्द मिरी कहकशाँ में डूब गई
वो चाँद तारों की सैल-ए-रवाँ में डूब गई
समन-बरान-ए-फ़लक ने शरर को देख लिया
ज़मीन वालों के दिल को नज़र को देख लिया
वो मेरी आह का शोला था कोई तारा न था
वो ख़ाक-दाँ का मुसाफ़िर था माह-पारा न था
दिलों में बैठ गया तीर-ए-आरज़ू बन कर
फ़लक पे फैल गया इश्क़ का लहू बन कर
ये साकिनान-ए-फ़लक दर्द-ओ-ग़म को क्या जानें
ये ख़ाकियों के रह-ए-बेश-ओ-कम को क्या जानें
वो ग़म को पी तो गए आँसुओं को पी न सके
ज़मीं के ज़हर को पी कर वो और जी न सके
फ़लक से गिरने लगे टूट टूट कर तारे
ज़मीं पे ढेर हुए तीर-ए-आह के मारे
ये आग और भी ऊपर निकल गई होती
हरीम-ए-अर्श को छू कर निकल गई होती

नज़्म
टूटे हुए तारे
मख़दूम मुहिउद्दीन