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तूर | शाही शायरी
tur

नज़्म

तूर

मख़दूम मुहिउद्दीन

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यहीं की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तिदा मैं ने
यहीं की जुरअत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ मैं ने

यहीं देखे थे इश्वा-ए-नाज़ ओ अंदाज़-ए-हया मैं ने
यहीं पहले सुनी थी दिल धड़कने की सदा मैं ने

यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी
दिलों में अज़दहाम-ए-आरज़ू लब बंद रहते थे

नज़र से गुफ़्तुगू होती थी दम उल्फ़त का भरते थे
न माथे पर शिकन होती न जब तेवर बदलते थे

ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी

वो क्या आता कि गोया दौर में जाम-ए-शराब आता
वो क्या आता रंगीली रागनी रंगीं रुबाब आता

मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगीं सहाब आता
लबों की मय पिलाने झूमता मस्त शबाब आता

यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी
हया के बोझ से जब हर क़दम पर लग़्ज़िशें होतीं

फ़ज़ा में मुंतशिर रंगीं बदन की लरज़िशें होतीं
रुबाब-ए-दिल के तारों में मुसलसल जुन्बिशें होतीं

ख़िफ़ा-ए-राज़ की पुर-लुत्फ़ बाहम कोशिशें होतीं
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी

बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्रीं सफ़ीने में
तमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में

जो छू लेता मैं उस को वो नहा जाता पसीने में
मय-ए-दो-आतिशा के से मज़े आते थे जीने में

यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी
बला-ए-फ़िक्र-ए-फ़र्दा हम से कोसों दूर होती थी

सुरूर-ए-सरमदी से ज़िंदगी मामूर होती थी
हमारी ख़ल्वत-ए-मासूम रश्क-ए-तूर होती थी

मलक झूला झुलाते थे ग़ज़ल-ख़्वाँ हूर होती थी
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी

न अब वो खेत बाक़ी हैं न वो आब-ए-रवाँ बाक़ी
मगर इस ऐश-ए-रफ़्ता का है इक धुँदला निशाँ बाक़ी