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तुम जा चुकी हो | शाही शायरी
tum ja chuki ho

नज़्म

तुम जा चुकी हो

ज़ाहिद इमरोज़

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मेरा दिल देर तक सोए हुए मुँह की बास था
जहाँ तुम ख़ुद-रौ फूल बन कर खिल उठी थीं

तुम्हारा मुनव्वर वजूद
मेरी तारीक रूह में सरमा की धूप बना

तुम्हारी आँखों की नमी से कई बहारों ने ख़ुमार पिया
जूतों से गिरी मिट्टी से बने मेरे हाथ

तुम्हारी तराशीदा गोलाइयों से मिल कर
जन्नत की झील बन गए

तुम्हारे सीने से फूटती आबशार की मौसीक़ी ने
मेरी ज़ख़्मी समाअत को सुरीला गीत बना दिया

मेरे बंजर तख़य्युल में जहाँ जहाँ तुम्हारे क़दम लगे
वहाँ मैं नई दुनिया बन कर तख़्लीक़ हुआ

अब तुम जा चुकी हो
मेरे आँसुओं की नदी

एक टहनी को भी शजर नहीं कर सकी
मेरे इरादों की शबनम

एक कोंपल को भी फूल नहीं कर सकी
समझौते का भेड़िया

मेरे ज़र्रे ज़र्रे से तुम्हें नोच रहा है
और उदासी डूबते सूरज की आख़िरी किरन बन कर

मेरे कंधों पर अँधेरे की चादर डाल रही है