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तुम ही कहो क्या करना है | शाही शायरी
tum hi kaho kya karna hai

नज़्म

तुम ही कहो क्या करना है

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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जब दुख की नदिया में हम ने
जीवन की नाव डाली थी

था कितना कस-बल बाँहों में
लोहू में कितनी लाली थी

यूँ लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरम पार लगी

ऐसा न हुआ, हर धारे में
कुछ अन-देखी मंजधारें थीं

कुछ माँझी थे अंजान बहुत
कुछ बे-परखी पतवारें थीं

अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोश धरो

नदिया तो वही है, नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है

अब कैसे पार उतरना है
जब अपनी छाती में हम ने

इस देस के घाव देखे थे
था वेदों पर विश्वाश बहुत

और याद बहुत से नुस्ख़े थे
यूँ लगता था बस कुछ दिन में

सारी बिपता कट जाएगी
और सब घाव भर जाएँगे

ऐसा न हुआ कि रोग अपने
कुछ इतने ढेर पुराने थे

वेद इन की टोह को पा न सके
और टोटके सब बे-कार गए

अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोश धरो

छाती तो वही है, घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है

ये घाव कैसे भरना है