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तो क्या | शाही शायरी
to kya

नज़्म

तो क्या

सय्यद अयाज़ महमूद

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निकलते दिन के दामन में गुमाँ हैं
कि अब इस दौर में बे-कैफ़ीयाँ हैं

हमें रक्खा है वक़्त-ए-बे-हुनर में
सकूँ लूटा गया इस मुस्तक़र में

उतरती जा रही है रात घर में
तिरी यादों में ठहरे दिन कहाँ हैं

समुंदर की
सियाही से परे

इक झिलमिलाहट थी
गई यादों की आहट थी

किसी एहसास का उनवाँ नहीं था
तिलमिलाहट थी

तमन्ना ख़ुद-कलामी के क़रीने की रिदा ओढ़े
लबों की कपकपाहट थी

बिछड़ा हुआ अंदाज़ हूँ मेरा क्या है
टूटा हुआ इक साज़ हूँ मेरा क्या है

वो गुल हूँ कि जिस में नहीं ख़ुशबू कोई
मिटी हुई आवाज़ हूँ मेरा क्या है

सवाब ये है
यही अब है

यहाँ मंज़र बदलने का हुनर मिल भी गया तो क्या
दिल-ए-सद-चाक

अब सिल भी गया
तो क्या