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तिश्नगी | शाही शायरी
tishnagi

नज़्म

तिश्नगी

नियाज़ हैदर

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ये छलकता हुआ जाम
मैं इसे पी न सकूँगा साक़ी

आज़माई हुई शय
ज़ाइक़ा तल्ख़

असर फीका है
चंद लम्हों का सुरूर

जैसे इक माह-जबीं दोशीज़ा
मुस्कुराती हुई तेज़ी से गुज़र जाती है

चंद लम्हों का सुरूर
तिश्नगी साग़र मय से भी कहीं जाती है

तोड़ दे जाम-ओ-सुबू
तिश्नगी नाम है जीने का

मुझे जीने दे
तिश्नगी रोज़-ए-अज़ल से है रफ़ीक़-ए-दिल-ओ-जाँ

तिश्नगी वज्ह-ए-तलब
ज़ौक़-ए-तलब हुस्न-ए-तलब

तिश्नगी पर है ज़माने का मदार
रातें जो आँखों ही आँखों में बसर होती हैं

रातें जो पिछले पहर अश्कों से मुँह धोती हैं
सुब्ह होती है तो पी जाता है सूरज उन को

रात ढल जाती है शबनम के हसीं क़तरों में
सुब्ह-दम फूलों के लाखों साग़र

मुंतज़िर होते हैं सूरज के लिए
ये सुबूही

कि जिसे पी के दमक उठता है
रू-ए-ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब

शुआएँ जिस की
नागिनें बन के हर इक बूँद को पी जाती हैं

बूँद आँसू की हो
या शबनम की

कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बाक़ी नहीं रहने पाती
ख़ुश्क हो जाते हैं सब

गुल-ए-तर
दीदा-ए-तर

कोई ख़ुर्शीद की सफ़्फ़ाक तपिश पी जाए
रात के चाँद का आलम देखो

चाँद इक घूँट में पी जाता है सूरज की तपिश
शबनम-ओ-अश्क दुआ करते हैं

कि ज़माने में सहर हो न कभी
और ये सिलसिला-ए-तिश्ना-लबी

ऐ ख़ुदा दहर में जारी है न जाने कब से
कैसे मानूँ

लब-ए-लालीं के हज़ारों बोसे
रूह की प्यास बुझा सकते हैं

इश्क़ सैराब नहीं हो सकता
ये छलकता हुआ जाम

मैं इसे पी न सकूँगा साक़ी