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तिरी दुनिया के नक़्शे में | शाही शायरी
teri duniya ke naqshe mein

नज़्म

तिरी दुनिया के नक़्शे में

अबरार अहमद

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तिरी दुनिया में जंगल हैं
हरे बाग़ात हैं

और दूर तक फैले बयाबाँ हैं
कहीं पर बस्तियाँ हैं

रौशनी के मंतक़े हैं
पहाड़ों पर उतरते बादलों में

रक़्स करता है समुंदर चार-सू
इसी अम्बोह का हिस्सा नहीं हूँ मैं

कहाँ हूँ मैं
मैं तेरे लम्स से इक आग बन कर फैलना

तस्ख़ीर की सूरत बिफरना चाहता था
और इतरा हूँ

किसी बे-मेहर सन्नाटे के मैदाँ में
हज़ीमत की दहकती रेत पर

बिखरा पड़ा हूँ शाम की सूरत
मैं जीना चाहता था तेरी दुनिया में

तिरे होंटों पे खिलते नाम की सूरत
कहीं दुश्नाम की सूरत

कहीं आराम की सूरत
मैं आँसू था

तिरे चेहरे पे आ कर फूल धरता था
तिरे दुख पर

गिरा करता था क़दमों में
ऐ चश्म-ए-तर कहाँ हूँ मैं

अँधेरे से भरी आँखों में
चलती है हवा हर-सू

और उड़ते जा रहे हैं रास्ते उस में
ज़मानों के किनारों से

अबद के सर्द ख़ानों तक
हवा चलती है हर-सू

और उस की हम-रही में
दो-क़दम चलता नहीं हूँ मैं

हुजूम-ए-रोज़-ओ-शब में
किस जगह सहमा हुआ हूँ मैं

कहाँ हूँ मैं
तिरी दुनिया के नक़्शे में

कहाँ हूँ मैं