गो रात की जबीं से सियाही न धुल सकी
लेकिन मिरा चराग़ बराबर जला किया
जिस से दिलों में अब भी हरारत की है नुमूद
बरसों मिरी लहद से वो शो'ला उठा किया
फीका है जिस के सामने अक्स-ए-जमाल-ए-यार
अज़्म-ए-जवाँ को मैं ने वो ग़ाज़ा अता किया
मेरे लहू की बूँद में ग़लताँ थीं बिजलियाँ
ख़ाक-ए-दकन को मैं ने शरर-आश्ना किया
साहिल की आँख में मगर आई न कुछ कमी
दरिया में लाख लाख तलातुम हुआ किया
ख़्वाब-ए-गिराँ से ग़ुंचों की आँखें न खुल सकीं
गो शाख़-ए-गुल से नग़्मा बराबर उठा किया
ये बज़्म ऐसी सोई कि जागी न आज तक
फ़ितरत का कारवाँ है कि आगे बढ़ा किया
मारा हुआ हूँ गो ख़लिश-ए-इंतिज़ार का
मुश्ताक़ आज भी हूँ पयाम-ए-बहार का
नज़्म
टीपू की आवाज़
आल-ए-अहमद सूरूर