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तीन शामों की एक शाम | शाही शायरी
tin shamon ki ek sham

नज़्म

तीन शामों की एक शाम

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

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ये सुरमई सी शाम
रगों में जिस की दौड़ता है ख़ूँ शफ़क़ के लाला-ज़ार का

किसी हसीना की उतारी ओढ़नी की तरह
मल्गजी सी शाम

जो लम्हा लम्हा ख़ामुशी के बंद की असीर है
ये आसमाँ की सम्त मुँह उठा के किस को याद करती है

ये मिस्ल-ए-दाग़ लाला-ए-चमन
सियाह आँखों में जो आँसुओं का नूर भरती है

तो क्या उसे भी है ख़बर कि आँसुओं की रौशनी
चराग़-ए-रोज़-ओ-शब से शोख़-तर

है रंग ओ नूर में
ये धीरे धीरे उठ के आसमाँ

पे नशा की तरह से छाई जाती है
इशारा करती है तू

तारे रौशनी की सम्त खिंच के आए जाते हैं
सियाहियों में सुर्ख़ियों

सियाहियों में रौशनी
का ये हुजूम देखना

तो उँगलियों से पाँव की कमर तलक
कमर से ता-ब-रू-ए-अम्बरीं

न जाने सर्द क्यूँ है शाम
ये तुझ से किस ने कह दिया कि दामन-ए-चमन

में आफ़्ताब को
ज़मीं ने दफ़्न कर दिया