'असरार' मुब्तला हुए इक दिन अज़ाब में
यानी गिरफ़्त-ए-ज़ाहिद-ए-इज़्ज़त-मआब में
तक़्वा ओ ज़ोहद फ़क़्र तसव्वुफ़ मुवाख़िज़ात
कहता था दास्तान मगर एक बाब में
ख़ौफ़-ए-ख़ुदा कुछ ऐसा बिठाया कि अल-अमाँ
दिन में ज़रा सुकून न राहत थी ख़्वाब में
वो इख़्तिलाज-ए-क़ल्ब हुआ था कि एक दिन
हाज़िर हुआ हकीम-ए-मतब की जनाब में
दो-चार बार नब्ज़ें टटोलीं तो दफ़अतन
बोले कि कुछ फ़साद है शायद लुआब में
लाज़िम है इस मरज़ में इफ़ाक़ा के वास्ते
संदल को घिस के पीजिए फ़ौरन गुलाब में
जब ये सुना तो हाथ के तोते ही उड़ गए
सोचा कि अब तो मौत की आया हूँ दाब में
सब का चुका के क़र्ज़ करूँ फ़िक्र-ए-आक़िबत
जो उम्र है गुज़ारूँ हुसूल-ए-सवाब में
आते ही इस ख़याल के घर-बार बेच कर
साक़ी के पास पहले गया इज़्तिराब में
साक़ी से जब तलब किया खाता उधार का
ज़ाहिद का भी हिसाब था मेरे हिसाब में
नज़्म
तक़द्दुस-ए-मआब
असरार जामई