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तब्दीली | शाही शायरी
tabdili

नज़्म

तब्दीली

अख़्तर-उल-ईमान

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इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं
जो मुझे राह चलते को पहचान ले

और आवाज़ दे ओ बे ओ सर-फिरे
दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं

गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर
गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें

पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर
घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें

और इस नेक रूहों के बाज़ार में
मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी

एक दिन के लिए अपना रुख़ मोड़ ले