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ताशक़ंद की शाम | शाही शायरी
tashqand ki sham

नज़्म

ताशक़ंद की शाम

अली सरदार जाफ़री

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मनाओ जश्न-ए-मोहब्बत कि ख़ूँ की बू न रही
बरस के खुल गए बारूद के सियह बादल

बुझी बुझी सी है जंगों की आख़िरी बिजली
महक रही है गुलाबों से ताशक़ंद की शाम

जगाओ गेसू-ए-जानाँ की अम्बरीं रातें
जलाओ साअद-ए-सीमीं की शम-ए-काफ़ूरी

तवील बोसों के गुल-रंग जाम छलकाओ
ये सुर्ख़ जाम है ख़ूबान-ए-ताशक़ंद के नाम

ये सब्ज़ जाम है लाहौर के हसीनों का
सफ़ेद जाम है दिल्ली के दिलबरों के लिए

घुला है जिस में मोहब्बत के आफ़्ताब का रंग
खुली हुई है उफ़ुक़ पर शफ़क़ तबस्सुम की

नसीम-ए-शौक़ चली मेहरबाँ तकल्लुम की
लबों की शोला-फ़िशानी है शबनम-अफ़्शानी

इसी में सुब्ह-ए-तमन्ना नहा के निखरेगी
किसी की ज़ुल्फ़ न अब शाम-ए-ग़म में बिखरेगी

जवान ख़ौफ़ की वादी से अब न गुज़़रेंगे
जियाले मौत के साहिल पे अब न उतरेंगे

भरी न जाएगी अब ख़ाक-ओ-ख़ूँ से माँग कभी
मिलेगी माँ को न मर्ग-ए-पिसर की ख़ुश-ख़बरी

कोई न देगा यतीमों को अब मुबारकबाद
खिलेंगे फूल बहुत सरहद-ए-तमन्ना पर

ख़बर न होगी ये नर्गिस है किस की आँखों की
ये गुल है किस की जबीं किस का लब है ये लाला

ये शाख़ किस के जवाँ बाज़ुओं की अंगड़ाई
बस इतना होगा ये धरती है शहसवारों की

जहान-ए-हुस्न के गुमनाम ताजदारों की
ये सरज़मीं है मोहब्बत के ख़्वास्तगारों की

जो गुल पे मरते थे शबनम से प्यार करते थे
ख़ुदा करे कि ये शबनम यूँ ही बरसती रहे

ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे