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तामीर | शाही शायरी
tamir

नज़्म

तामीर

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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अपने सीने में दबाए हुए लाखों शोले
शबनम ओ बर्फ़ के नग़्मात सुनाए मैं ने

ज़ीस्त के नौहा-ए-पैहम से चुरा कर आँखें
गीत जो गा न सके कोई वो गाए मैं ने

आज तश्बीह-ओ-किनायात का दिल टूट गया
आज मैं जो भी कहूँगा वो हक़ीक़त होगी

आँच लहराएगी हर बूँद से पैमाने की
मेरे साए को मिरी शक्ल से वहशत होगी

ग़म-ए-दौराँ ने ग़म-ए-दिल का सुकूँ छीन लिया
अब तिरे प्यार में भी प्यार के अंदाज़ नहीं

शौक़ के क़िल'अ-ए-तारीक में है सन्नाटा
कोई आवाज़ नहीं कोई भी आवाज़ नहीं

कैसे समझाऊँ कि उल्फ़त ही नहीं हासिल-ए-उम्र
हासिल-ए-उम्र इस उल्फ़त का मुदावा भी तो है

ज़िंदगी हसरत-ए-ख़स-ख़ाना-ओ-बर्फ़ाब सही
कुछ दहकते हुए शोलों की तमन्ना भी तो है

तू मिरा ख़्वाब है आदर्श है लेकिन मुझ को
तेरे इस क़स्र-ए-तरब-नाक से जाना होगा

आग और ख़ून उगलते हुए सय्यारे को
फिर तिरा क़स्र-ए-तरब-नाक बनाना होगा