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सुनो | शाही शायरी
suno

नज़्म

सुनो

ज़ेहरा अलवी

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मैं हसीन हूँ है मा'लूम मुझे
मैं सजती सँवरती भी रहती हूँ

मगर मैं इस जिस्म से आगे इक रूह भी तो हूँ
मैं नर्म होंटों से जो लफ़्ज़ बुनती हूँ

कभी उन में भी खो के देख
मेरे जिस्म से आगे मेरे होने में जो लज़्ज़त है

उसे आश्कार कर के देख
मैं फ़क़त तेरे लम्स को बनाई मख़्लूक़ नहीं हूँ

मैं तेरी दिल-लगी नहीं
मैं तेरा असासा हूँ

मैं तेरा निस्फ़ तेरी रूह का आहन हूँ
मैं तेरे तकम्मुल की ला-ज़वाल पहचान हूँ

तू पहचान मुझे मैं भी इंसान हूँ
मैं फ़क़त हवस नहीं

तेरी लज़्ज़त-ए-आश्नाई नहीं
तू कि अभी मुझ से आश्ना ही नहीं

मैं तो तेरे होने का सामाँ हूँ
मैं तेरी ही हस्ती का जल्वा-नुमा हूँ

मैं इज़हार करूँ ख़ुद का
तू देख ख़ुद को ज़रा

तू ज़ुहूर है मेरी क़ुदरत का
तुझ से कि नुमूद मेरी ही कोख की ख़िल्क़त है

करेगा पामाल मुझ को
तो रहेगा ख़ाक तू भी

मैं अलग तुझ से नहीं हूँ
मैं तेरी ही पस्ली का ख़मसा हूँ