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सुकूत | शाही शायरी
sukut

नज़्म

सुकूत

अबरारूल हसन

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रात फैलती गई है
दूर दूर जंगलों में

रास्ता टटोलती
हवा की साएँ साएँ

जैसे साँस रुक रही हो
ओस सोगवार

ज़ार ज़ार रो रही हो
लाला-ज़ार में गुलों की पतियाँ

बिखर के राख हो रही हूँ
आख़िरी उम्मीद

टिमटिमा के बुझ गई है
वक़्त बह चुका है

थम गया है
साएँ साएँ रुक गई है