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सुब्ह-ए-जुदाई | शाही शायरी
subh-e-judai

नज़्म

सुब्ह-ए-जुदाई

मजीद अमजद

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अब धुँदली पड़ती जाती है तारीकी-ए-शब मैं जाता हूँ
वो सुब्ह का तारा उभरा वो पौ फूटी अब मैं जाता हूँ

जाता हूँ इजाज़त जाने दो वो देखो उजाले छाने को हैं
सूरज की सुनहरी किरनों के ख़ामोश बुलावे आने को हैं

वो फूलों के गजरे जो तुम कल शाम पिरो कर लाई थीं
वो कलियाँ जिन से तुम ने ये रंगीं सीजें महकाई थीं

देखो इन बासी कलियों की पत्ती पत्ती मुरझाई है
वो रात सुहानी बीत चुकी आ पहुँची सुब्ह-ए-जुदाई है

अब मुझ को यहाँ से जाना है पुर-शौक़ निगाहो मत रोको
ओ मेरे गले में लटकी हुई लचकीली बाहो मत रोको

इन उलझी उलझी ज़ुल्फ़ों में दिल अपना बिसारे जाता हूँ
इन मीठी मीठी नज़रों की यादों के सहारे जाता हूँ

जाता हूँ इजाज़त वो देखो ग़ुर्फ़े से शुआएँ झलकी हैं
पिघले हुए सोने की लहरें मीना-ए-शफ़क़ से छलकी हैं

खेतों में किसी चरवाहे ने बंसी की तान उड़ाई है
एक एक रसीली सुर जिस की पैग़ाम सफ़र का लाई है

मजबूर हूँ मैं जाना जो हुआ दिल माने न माने जाता हूँ
दुनिया की अँधेरी घाटी में अब ठोकरें खाने जाता हूँ