उम्र की ढलान पर
थक हार कर
बैठी है ज़िंदगी
हिसाब करती हुई
आख़िर में
अंदर बाहर
बस एक सिफ़्र
ही बचा रह गया
नज़्म
सिफ़्र
ख़दीजा ख़ान
नज़्म
ख़दीजा ख़ान
उम्र की ढलान पर
थक हार कर
बैठी है ज़िंदगी
हिसाब करती हुई
आख़िर में
अंदर बाहर
बस एक सिफ़्र
ही बचा रह गया