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शिकस्त | शाही शायरी
shikast

नज़्म

शिकस्त

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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ज़मीन-ए-संग से सूरज उगाने वाले हाथ
किसे ख़बर थी कि उस शहर में क़लम होंगे

जहाँ से परचम-ए-दस्त-ए-हुनर बुलंद हुआ
ज़मीं अक़ीदा-ए-फ़र्दा से लाला-रंग हुई

उफ़ुक़ सितारा-ए-मेहनत से अर्जमंद हुआ
और अब के बार क़लम भी उन्हीं के साथ रहे

जो अपनी फ़तह के नश्शे में चूर नख़वत से
दुरीदा-दामनी-ए-अहल-ए-दिल पे हँसते हैं

फ़ुग़ान-ए-क़ाफ़िला-ए-मुज़्महिल पे हँसते हैं