EN اردو
शिकस्त-ए-साज़ | शाही शायरी
shikast-e-saz

नज़्म

शिकस्त-ए-साज़

अदा जाफ़री

;

मैं ने गुल-रेज़ बहारों की तमन्ना की थी
मुझे अफ़्सुर्दा निगाहों के सिवा कुछ न मिला

चंद सहमी हुई आहों के सिवा कुछ न मिला
जगमगाते हुए तारों की तमन्ना की थी

मैं ने मौहूम उमीदों की पनाहें ढूँडीं
शिद्दत-ए-यास में मुबहम सा इशारा न मिला

डगमगाते हुए क़दमों को सहारा न मिला
हाए किस दश्त-ए-बला-ख़ेज़ में राहें ढूँडें

अब फ़ुसूँ-साज़ बहारों से मुझे क्या मतलब
आज ही मेरी निगाहों में वो मंज़र तौबा

मैं ने देखे हैं लपकते हुए नश्तर तौबा
ख़ुल्द बर-दोश नज़ारों से मुझे क्या मतलब

आसमाँ नूर के नग़्मात से मा'मूर सही
मैं ने घटती हुई चीख़ों के सुने हैं नौहे

हाए वो अश्क जो पलकों से ढलक भी न सके
ज़िंदगी हुस्न-ओ-जवानी से अभी चूर सही

कभी ज़ौ-पाश सितारों की तमन्ना थी मुझे
आज ज़र्रों को भी मक़्सूद बना रक्खा है

आज काँटों को कलेजे से लगा रक्खा है
कभी गुल-रेज़ बहारों की तमन्ना थी मुझे