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शीशा-ए-साअत का ग़ुबार | शाही शायरी
shisha-e-saat ka ghubar

नज़्म

शीशा-ए-साअत का ग़ुबार

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

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मैं ज़िंदा था
मगर मैं तेरे सुर्ख़ नील-गूँ सफ़ेद बुलबुले में क़ैद था

हवा वसीअ थी मगर हुदूद से रिहा न थी
न मेरे पर शिकस्ता थे न मेरी साँस कम

था बुलबुले की काएनात में मिरा ही दम-क़दम
मगर मिरी उड़ान सुर्ख़ नील-गूँ सफ़ेद मक़बरे के

आख़िरी ख़ुतूत से सिवा न थी
मैं हाल के अथाह पानियों में ग़र्क़

या गुज़शता वक़्त के भँवर के दस्त-ए-आतिशीं में एक सैद-ए-ज़र्द था
तो मैं ने क्या किया

कि अपनी साँस रोक कर के, आँखें मीच कर के सर को आगे कर के
शानों को झटक के

एक जस्त में ही जस्त की सी सर्द छत को तोड़ कर
मैं उस के पार हो गया

तिलिस्म से सदा उठी: ''हमें शिकस्त हो गई
शिकस्त हो गई कस्त हो गई अस्त हो गई

........तो गई ........ओ गई ........
शब-ए-बरात

आतिशीं तमाशों का समाँ
उठा के मेरी बच्चीयों ने ना-गहाँ

पचास पैसे के अनार के लबों पे एक क़तरा नार रख दी
ख़ाक को ये गर्म बोसा कब नसीब था!

अनार में जो क़ैद था जो ज़र्रा ज़र्रा सैद था
वो जिन उबल पड़ा

सियाहियाँ सफ़ेद सुर्ख़ नील-गूँ तुयूर से चमक उठीं
मगर न जाने फिर किधर तुयूर उड़ गए

अनार को शब-ए-बरात ने नदी में दफ़्न कर दिया
सदा-ए-बाज़गश्त क़तरा क़तरा कंकरों की तरह ग़र्क़ हो गई

तिलिस्म रह गया मगर तिलिस्म में जो क़ैद था
वो उस सदा के साथ खो गया