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शराब | शाही शायरी
sharab

नज़्म

शराब

मीराजी

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फ़ुज़ूल है
ये गुफ़्तुगू है

निगाह देखती है ताक़ में रखी हैं चंद बोतलें
चलो चलें

चलो चलें जहाँ हमें ख़याल ही न आए ज़िंदगी नज़र की भूल है
चलो चलें जहाँ ये दर ये दस्तकों पे दस्तकें सुनाई ही न दे सकें

जहाँ ये रौज़न-ए-ज़ुबूँ निगाह की मुख़ासिमत न कर सके
जहाँ खुली फ़ज़ा खुली फ़ज़ा कि जैसे कोई कह रहा हो आइए

ये कह रही हो आइए खुली फ़ज़ा है ये यहाँ तो आइए
मगर खुली फ़ज़ा में भी कभी गढ़े कभी सितादा पेड़ कह रहे हैं देखिए

ये गुफ़्तुगू फ़ुज़ूल है
फ़ुज़ूल है

निगाह देखती है ताक़ में रखी हैं चंद बोतलें
चलो चलें

जो गोद माँ की थी वो माँ की गोद थी
वहाँ हर एक बात जो फ़ुज़ूल थी वो एक भूल थी

निगाह देखती है ताक़ में रखी हैं चंद बोतलें
चलो चलें

बहन ये कह रही थी अब तो आप घर बसा ही लें
मैं सोचता था किस का घर हमारा घर तुम्हारा घर

और उस पे भाई बोल उठा फ़ुज़ूल है ये गुफ़्तुगू फ़ुज़ूल है
निगाह देखती है ताक़ में रखी हैं चंद बोतलें

चलो चलें जहाँ न कोई ताक़ हो न चंद बोतलें जहाँ न कह सकें चलो चलें
ये गुफ़्तुगू फ़ुज़ूल है

मगर वहाँ कोई गढ़ा न हो न कोई पेड़ हो
वहाँ सुकून-ए-आख़िरी से जा मिलें

मगर यहाँ भी ताक़ पर रखी हैं चंद बोतलें